रूहे-शब्बीर

रूहे-शब्बीर

रूहे-शब्बीर वो मन्ज़र तो बता जब हुई शहरे-मदीना से जुदाई होगी
ये तो ज़ैनब ही बता सकती है, लौटकर कैसे मदीने में वो आई होगी

कर के रोज़े की तरफ चेहरा ये बोले शब्बीर
हम रहें या न रहें नाना हुज़ूर, हश्र तक आप की उम्मत की भलाई होगी

रूहे-शब्बीर वो मन्ज़र तो बता जब हुई शहरे-मदीना से जुदाई होगी

लाश अकबर की उठा लाए जो ख़ैमों में हुसैन
शेहरबानो ही बता सकती है, किस ग़ज़ब की वो क़यामत थी जो टूटी होगी

रूहे-शब्बीर वो मन्ज़र तो बता जब हुई शहरे-मदीना से जुदाई होगी

जलते ख़ैमों में जुलस्ति हुई सुग़रा मासूम
ऐ फ़लक तूने ये कैसे देखा, तुर्बते-ज़हरा मदीने में दहलती होगी

रूहे-शब्बीर वो मन्ज़र तो बता जब हुई शहरे-मदीना से जुदाई होगी

रख के लाशों को कतारों में ये बोले शब्बीर
तू जो राज़ी है तो हम राज़ी हैं, सरे-तस्लीम के तेरी यहीं मर्ज़ी होगी
रूहे-शब्बीर वो मन्ज़र तो बता जब हुई शहरे-मदीना से जुदाई होगी

नूर को हश्र में रखना है सगों में शब्बीर
तेरी राहों में पड़ा होगा कहीं, आस एक नज़र-ए-इनायत की लगाई होगी

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