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छोड़ फ़िक्र दुनियां की

छोड़ फ़िक्र दुनियां की

 

छोड़ फ़िक्र दुनियां की, चल मदीने चलते हैं
मुस्तफ़ा ग़ुलामों की किस्मतें बदलते हैं

रेहमतों के बादल के साए साथ चलते हैं
मुस्तफ़ा के दीवाने घर से जब निकलते हैं

हमको रोज़ मिलता है सदक़ा प्यारे आक़ा का
उनके दर के टुकड़ों पर ख़ुशनसीब पलते है

आमेना के प्यारे का, सब्ज़ गुम्बद वाले का
जश्न हम मनाते हैं, जलने वाले जलते हैं

सिर्फ सारी दुनियां में वो तयबा की गलियां हैं
जिस जगह पे हम जैसे खोटे सिक्के चलते हैं

सच है ग़ैर का एहसान वो कभी नहीं लेते
ऐ अलीम आक़ा के जो टुकड़ों पे पलते हैं

 

 

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