उमंगें जोश पर आईं, इरादे गुदगुदाते हैं

उमंगें जोश पर आईं, इरादे गुदगुदाते हैं

उमंगें जोश पर आईं, इरादे गुदगुदाते हैं
जमीले-क़ादरी शायद हबीबे-हक़ बुलाते हैं

जगा देते हैं क़िस्मत चाहते हैं जिस की दम भर में
वो जिस को चाहते हैं अपने रोज़े पर बुलाते हैं

उन्हें मिल जाता है गोया वो साया अर्शे-आ’ज़म का
तेरी दीवार के साये में जो बिस्तर जमाते हैं

मुक़द्दर इस को कहते हैं फ़रिश्ते अर्श से आ कर
ग़ुबारे-फ़र्शे-तयबा अपनी आँखों में लगाते हैं

ख़ुदा जाने के तयबा को हमारा कब सफर होगा
मदीने को हज़ारों क़ाफ़िले हर साल जाते हैं

शहे-तयबा ये क़ूवत है तेरे दर के गदाओं में
वो जिस को चाहते हैं शाह दम भर में बनाते हैं

मदीने की तलब में जो नहीं लेते हैं जन्नत को
उन्हें तशरीफ़ ला कर हज़रते रिज़वां सुनाते हैं

तसद्दुक़ जाने-आलम इस करीमी और रहीमी के
गुनाह करते हैं हम, वो अपनी रहमत से छुपाते हैं

जमीले-क़ादरी को देख कर हूरों में ग़ुल होगा
यही है वो के जो नाते-हबीबे-हक़ सुनाते हैं

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