Top 51 Sher of Mirza Ghalib

Top 51 Sher of Mirza Ghalib

 

आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए,

साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था।

 

रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ‘ग़ालिब’,

कहते हैं अगले ज़माने में कोई ‘मीर’ भी था।

 

मौत का एक दिन मुअय्यन है,

नींद क्यूँ रात भर नहीं आती।

 

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,

बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।

 

हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद,

जो नहीं जानते वफ़ा क्या है।

 

न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता,

डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता।

 

हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी,

कुछ हमारी ख़बर नहीं आती।

 

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है,

तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है।

 

इश्क़ ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दिया,

वर्ना हम भी आदमी थे काम के ।

 

मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था,

दिल भी या-रब कई दिए होते।

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दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ ,

रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ।

 

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता,

अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता।

 

ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह,

कोई चारासाज़ होता कोई ग़म-गुसार होता।

मरते हैं आरज़ू में मरने की,

मौत आती है पर नहीं आती।

 

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना,

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।

 

फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं,

फिर वही ज़िंदगी हमारी है।

 

हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे,

कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और।

 

हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,

दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है।

 

आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे,

ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे।

 

कहूँ किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है,

मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता।

करने गए थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला,

की एक ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए।

 

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,

दिल के खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है।

 

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल,

जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है।

 

हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है,

वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता।

 

इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया,

दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया।

 

जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन,

बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए।

 

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का,

उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले।

 

वो आए घर में हमारे ख़ुदा की क़ुदरत है,

कभी हम उन को कभी अपने घर को देखते हैं।

 

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे,

होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे।

यही है आज़माना तो सताना किसको कहते हैं,

अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तहां क्यों हो।

 

इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’,

कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे।

 

यूँ ही गर रोता रहा ‘ग़ालिब’ तो ऐ अहल-ए-जहाँ,

देखना इन बस्तियों को तुम कि वीराँ हो गईं।

 

आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी,

अब किसी बात पर नहीं आती।

 

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है,

तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है।

 

पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है,

कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या।

 

आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक,

कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक।

 

कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा ‘ग़ालिब’ और कहाँ वाइज़,

पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले।

 

रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज,

मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं।

 

उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़,

वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।

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ग़ालिब’ बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे ,

ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे।

 

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल,

जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है।

 

दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ,

मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ।

 

इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा,

लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं।

 

बेख़ुदी बे सबब नहीं ‘ग़ालिब’,

कुछ तो है जिस की पर्दा-दारी है।

 

हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन,

ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होते तक।

 

कहते हैं जीते हैं उम्मीद पे लोग,

हम को जीने की भी उम्मीद नहीं।

 

क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ,

रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन।

 

बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना,

आदमी को भी मुयस्सर नहीं इंसाँ होना।

इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’,

कि लगाए न लगे और बुझाए न बने।

 

कब वो सुनता है कहानी मेरी,

और फिर वो भी ज़बानी मेरी।

 

बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ‘ग़ालिब’,

तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं।

क़ैद में है तेरे वहशी को वही ज़ुल्फ़ की याद

हां कुछ इक रंज गरां बारी-ए-ज़ंजीर भी था।

 

खैरात में मिली ख़ुशी

मुझे अच्छी नहीं लगती ग़ालिब,

मैं अपने दुखों में रहता हु नवावो की तरह।

मिर्ज़ा ग़ालिब की फेमस शायरी |

 

हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे

कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और।

 

तेरे वादे पर जिये हम तो यह जान,झूठ जाना

कि ख़ुशी से मर न जाते अगर एतबार होता।

 

जब लगा था तीर

तब इतना दर्द न हुआ ग़ालिब

ज़ख्म का एहसास तब हुआ

जब कमान देखी अपनों के हाथ में।

 

गुज़रे हुए लम्हों को मैं इक बार तो जी लूँ,

कुछ ख्वाब तेरी याद दिलाने के लिए हैं।

 

तुम मिलो या न मिलो नसीब की बात है

पर सुकून बहुत मिलता है तुम्हे अपना सोचकर।

 

मैं नादान था जो वफ़ा को

तलाश करता रहा ग़ालिब

यह न सोचा के…

एक दिन अपनी साँस भी बेवफा हो जाएगी।

 

किसी फ़कीर की झोली

में कुछ सिक्के डाले तो ये

अहसास हुआ महंगाई के इस

दौर मैं दुआएं आज भी सस्ती हैं।

हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है,

वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता।

 

मेरी ज़िन्दगी है अज़ीज़ तर इसी वस्ती मेरे

हम सफर मुझे क़तरा-क़तरा पीला ज़हर

जो करे असर बरी देर तक।

 

हम न बदलेंगे वक़्त की रफ़्तार के साथ,

जब भी मिलेंगे अंदाज पुराना होगा।

 

उदासी पकड़ ही नहीं पाते लोग

इतना संभाल कर मुस्कुराते है हम।

 

दर्द जब दिल में हो तो दवा कीजिए,

दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजिए।

 

बिजली इक कौंध गयी आँखों के आगे तो क्या,

बात करते कि मैं लब तश्न-ए-तक़रीर भी था।

 

तुम न आए तो क्या सहर न हुई

हाँ मगर चैन से बसर न हुई

मेरा नाला सुना ज़माने ने

एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई।

 

मंज़िल मिलेगी भटक कर ही सही

गुमराह तो वो हैं जो घर से निकले ही नहीं।

 

मोहब्बत में नही फर्क जीने और मरने का उसी

को देखकर जीते है जिस ‘काफ़िर’ पे दम निकले।

 

ज़िन्दगी से हम अपनी कुछ उधार नही लेते,

कफ़न भी लेते है तो अपनी ज़िन्दगी देकर।

 

हम तो फना हो गए

उसकी आंखे देखकर गालिब,

न जाने वो आइना कैसे देखते होंगे।

यही है आज़माना तो सताना किसको कहते हैं,

अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तहां क्यों हो।

 

इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ग़ालिब

कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे।

 

उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़

वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।

 

बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना

आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना।

 

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,

दिल के खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है।

 

क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां

रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन।

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा

कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है

बना है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता

वगर्ना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है।

 

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन,

हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है।

 

पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार

ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है।

 

ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर,

आने का अहद कर गए आए जो ख़्वाब में।

 

जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे

क्या खूब क़यामत का है गोया कोई दिन और।

इश्क़ मुझको नहीं वेह्शत ही सही

मेरी वेह्शत तेरी शोहरत ही सही।

 

कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को,

ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता।

 

तेरे वादे पर जिये हम, तो यह जान, झूठ जाना,

कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता।

 

ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं,

कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं।

 

तुम न आए तो क्या सहर न हुई

हाँ मगर चैन से बसर न हुई,

मेरा नाला सुना ज़माने ने,

एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई।

 

ज़िन्दगी अपनी जब शक़ल से गुज़री ग़ालिब

हम भी क्या याद करेंगे के खुदा रखते थे।

 

आशिक़ हूँ पर माशूक़ फरेबी है मेरा काम

मजनू को बुरा कहती है लैला मेरे आगे।

 

जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन,

बैठे रहें तसव्वुर–ए–जानाँ किए हुए।

 

बक रहा हूँ जूनून में क्या क्या कुछ

कुछ ना समझे खुदा करे कोई।

 

 

न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा,

कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है।

 

मै से ग़रज़ नशात है किस रूसियाह को

इक गुनाह बेखुदी मुझे दिन रात चाहिए।

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,

दिल के खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़्याल अच्छा है।

 

ग़ालिब’ बुरा न मान जो वाइ’ज़ बुरा कहे

ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे।

 

ग़ालिब छूटी शराब पर अब भी कभी कभी

पीता हूँ रोज़-ए-अब्र और शब्-ए-मेहताब में।

 

आ ही जाता वो राह पर ग़ालिब

कई दिन और भी जिए होते।

 

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल,

जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है।

 

चंद तस्वीर-ए-बूतान चंद हसीनो के ख़ुतूत

बाद मरने के मेरे घर से ये सामान निकला।

 

हुआ जब गम से यूँ बेहिश

तो गम क्या सर के कटने का

ना होता गर जुदा तन से,

तो जहानु पर धरा होता।

 

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन,

बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले।

 

वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़,

सिवाए बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है।

 

था ज़िन्दगी में मर्ग का खटका लगा हुआ

उड़ने से पेश्तर भी मेरा रंग ज़र्द था।

 

फ़िक्र–ए–दुनिया में सर खपाता हूँ

मैं कहाँ और ये वबाल कहाँ ।

 

मेहरबान हो के बुला लो मुझे चाहे जिस वक़्त

मैं गया वक़्त नहीं हूँ के फिर आ भी ना सकूँ ।

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तुम ना आए तो क्या सहर ना हुई

हाँ मगर चैन से बसर ना हुई

मेरा नाला सुना ज़माने ने…

एक तुम हो जिसे ख़बर ना हुई।

 

कोई वीरानी सी वीरानी है

दश्त को देख के घर याद आया।

तू तो वो जालिम है जो दिल में

रहकर भी मेरा न बन सका

और दिल वो काफिर जो…

मुझ में रहकर भी तेरा हो गया।।

 

गुनाह करके कहां जाओगे ग़ालिब

ये जमीं ये आसमा सब उसी का है।

 

कितना खौफ़ होता है रात के अंधेरे में

जाकर पूछ उन परिंदों से जिनके घर नहीं होते।

 

मेरे पास से ग़ुजर कर मेरा हाल तक न पूछा

मैं ये कैसे मान जाऊ के वो दूर जाकर रोये।

 

ब लगा था तीर तब इतना

दर्द नहीं हुआ था ग़ालिब

ज़ख्म का एहसास तब हुआ,

जब कमान देखी अपनों के हाथ में।

 

इसलिए कम करते हैं ज़िक्र तुम्हारा

कहीं तुम ख़ास से आम ना हो जाओ।

 

मौत पे भी मुझे यकीन है

तुम पर भी ऐतबार है

देखना है पहले कौन आता है

हमें दोनों का इंतज़ार है।

 

रहने दे मुझे इन अंधेरों में ए-ग़ालिब

कमबख्त रोशनी में अपनों के

असली चेहरे सामने आ जाते हैं।

 

मशरूफ रहने का अंदाज़ तुम्हें तनहा ना कर दे ग़ालिब

रिश्ते फुर्सत के नहीं तवज्जो के मोहताज़ होते हैं।

 

हमें पता है तुम कहीं और के मुसाफिर हो

हमारा शहर तो बस यूँ ही रास्ते में आया था।

मैं नादान था जो वफ़ा को

तलाश करता रहा ग़ालिब,

यह न सोचा के एक दिन,

अपनी साँस भी बेवफा हो जाएगी।

 

 

कुछ इस तरह से मैंने जिंदगी को आसान कर लिया

किसी से माफी मांग ली किसी को माफ़ कर दिया।

 

बे-वजह नहीं रोता इश्क में कोई ग़ालिब

जिसे खुद से बढ़कर चाहो वो रुलाता ज़रूर है।

 

वो उम्र भर कहते रहे तुम्हारे सीने में दिल नहीं

दिल का दौरा क्या पड़ा ये दाग भी धुल गया।

 

उम्र भर ग़ालिब यही ग़लती करते रहे,

धूल चेहरे पर थी हम आईना साफ करते रहे।

 

तोड़ा कुछ इस अदा से तालुक उसने ग़ालिब

के सारी उम्र अपना कसूर ढूँढ़ते रहे।

 

वो आयेंगे नये वादे लेकर.

तुम पुरानी शर्तों पर ही कायम रहना।

हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने,

ग़ैर को तुझ से मोहब्बत ही सही।

 

बे-वजह नहीं रोता इश्क़ में कोई ग़ालिब

जिसे खुद से बढ़ कर चाहो वो रूलाता ज़रूर है।

 

तू मिला है तो ये अहसास हुआ है मुझको,

ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोड़ी है।

लफ़्ज़ों की तरतीब मुझे बांधनी नहीं आती “ग़ालिब”

हम तुम को याद करते हैं सीधी सी बात है।

 

एक मुर्दे ने क्या खूब कहा है

ये जो मेरी मौत पर रो रहें हैं

अभी उठ जाऊ तो जीने नहीं देंगे।

उम्र भर देखा किये, मरने की राह

मर गये पर, देखिये, दिखलाएँ क्या।

 

कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता,

तुम न होते न सही ज़िक्र तुम्हारा होता।

 

गुजर रहा हूँ यहाँ से भी गुजर जाउँग

मैं वक्त हूँ कहीं ठहरा तो मर जाउँगा।

 

फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूँ

मैं कहाँ और ये वबाल कहाँ।

 

हम जो सबका दिल रखते हैं,

सुनो, हम भी एक दिल रखते हैं।

 

कोई उम्मीद बर नहीं आती,

कोई सूरत नज़र नहीं आती।

 

आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए,

साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था।

 

पीने दे शराब मस्जिद में बैठ के,

या वो जगह बता जहां खुदा नहीं है।

 

की वफ़ा हम से, तो गैर उसको जफ़ा कहते हैं,

होती आई है, कि अच्छो को बुरा कहते हैं।

 

दुख देकर सवाल करते हो

तुम भी गालिब कमाल करते हो।

 

मुझे कहती है तेरे साथ रहूँगी सदा ग़ालिब

बहुत प्यार करती है मुझसे उदासी मेरी।

 

हम जो सबका दिल रखते हैं

सुनो, हम भी एक दिल रखते हैं।

 

 

हमारे शहर में गर्मी का यह आलम है ग़ालिब,

कपड़ा धोते ही सूख जाता है पहनते ही भीग जाता है।

 

वो जो काँटों का राज़दार नहीं,

फ़स्ल-ए-गुल का भी पास-दार नहीं।

ये चंद दिन की दुनिया है ग़ालिब

यहां पलकों पर बिठाया जाता है

नज़रो से गिराने के लिए।

 

खुद को मनवाने का मुझको भी हुनर आता है

मैं वह कतरा हूं समंदर मेरे घर आता है।

 

लोग कहते है दर्द है मेरे दिल में ,

और हम थक गए मुस्कुराते मुस्कुराते।

यों ही उदास है दिल बेकरार थोड़ी है,

मुझे किसी का कोई इंतज़ार थोड़ी है।

 

वो रास्ते जिन पे कोई सिलवट ना पड़ सकी,

उन रास्तों को मोड़ के सिरहाने रख लिया।

 

तू मिला है तो ये अहसास हुआ है मुझको

ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोड़ी है।

 

हक़ीक़त ना सही तुम

ख़्वाब बन कर मिला करो,

भटके मुसाफिर को..

चांदनी रात बनकर मिला करो।

 

रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज,

मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं।

 

तुम वो भी महसूस कर लिया करो ना

जो हम तुमसे कह नहीं पाते हैं।

 

मेरे मरने का एलान हुआ

तो उसने भी यह

कह दिया,अच्छा हुआ मर गया

बहुत उदास रहता था।

 

मैं उदास बस्ती का अकेला वारिस,

उदास शख्सियत पहचान मेरी।

 

जरा सी छेद क्या हुई मेरे जेब में

सिक्कों से ज्यादा तो रिश्तेदार गिर गए।

 

है एक तीर जिस में दोनों छिदे पड़े हैं वो

दिन गए कि अपना दिल से जिगर जुदा था।

मोहब्बत तो दिल से की थी,

दिमाग उसने लगा लिया

दिल तोड़ दिया मेरा उसने और

इल्जाम मुझपर लगा दिया।

 

नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को

ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं।

 

अब तो आ जाओ साईं बहुत उदास है दिल,

सांसों की तरह जरूरी है, अब दीदार तेरा।

 

जब ख़ुशी मिली तो कई दर्द मुझसे रूठ गए,

दुआ करो कि मैं फिर से उदास हो जाऊं।

 

न वो आ सके न हम कभी जा सके

न दर्द दिल का किसीको सुना सके

बस खामोश बैठे है उसकी यादों में

न उसने याद किया न हम उसे भुला सके।

 

ज़िन्दगी से हम अपनी कुछ उधार नही लेते,

कफ़न भी लेते है तो अपनी ज़िन्दगी देकर।

 

नहीं करनी अब मोहब्बत किसी से,

एक बार करके ही पछता लिए हम,

उसी ने दे दिए हमें जिंदगी के सारे गम।

 

आप कितने भी अच्छे इंसान क्यों न हो आप

किसी न किसी की कहानी में बुरे ज़रूर होते है।

 

 

इतना दर्द न दिया कर ए ज़िन्दगी

इश्क़ किया है कोई क़त्ल नहीं।

 

शक से भी अक्सर खत्म हो जाते है रिश्ते

कसूर हर बार गलतियों का नहीं होता।

 

बिखरा वजूद, टूटे ख़्वाब, सुलगती तन्हाईयाँ,

कितने हसीन तोहफे दे जाती है ये मोहब्बत।

 

उनकी एक नजर को तरसते रहेंगे,

ये आंसू हर बार बरसते रहेंगे,

कभी बीते थे कुछ पल उनके साथ,

बस यही सोच कर हसते रहेंगे।

 

मुहब्बत में उनकी अना का पास रखते हैं.

हम जानकर अक्सर उन्हें नाराज़ रखते हैं।

हमने मोहोब्बत के नशे में आकर

उसे खुदा बना डाला,

होश तो तब आया जब उसने कहा

खुदा किसी एक का नहीं होता ।

 

इस सादगी पे कौन न मर जाए खुदा

लड़ते हैं और हाथ मे तलवार भी नहीं।

 

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।

 

खुदा के वास्ते पर्दा न रुख्सार से उठा ज़ालिम,

कहीं ऐसा न हो यहाँ भी वही काफिर सनम निकले।

 

कितने शिरीन हैं तेरे लब के रक़ीब

गालियां खा के बेमज़ा न हुआ

कुछ तो पढ़िए की लोग कहते हैं

आज ‘ग़ालिब ‘ गजलसारा न हुआ।

 

 

वो मिले भी तो खुदा के दरबार में ग़ालिब,

अब तू ही बता मोहोब्बत करते या इबादत।

 

हाथों की लकीरों पर मत जा ए ग़ालिब,

नसीब उनके भी होते हैं जिनके हाथ नहीं होता

 

ना कर इतना गौरव अपने नशे पे शराब

तुझसे भी ज्यादा नशा रखती है आँखें किसी की।

 

तुम न आए तो क्या सहर न हुई

हाँ मगर चैन से बसर न हुई

मेरा नाला सुना ज़माने ने

एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई

 

बर्दाशत नहीं तुम्हें किसी और के साथ देखना

बात शक की नहीं हक की है

कहते हैं जीते हैं उम्मीद पर लोग

हमको जीने की भी उम्मीद नहीं।

 

इश्क से तबियत ने जीस्त का मजा पाया,

दर्द की दवा पाई दर्द बे-दवा पाया।

 

न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता

डुबोया मुझको होनी ने, न होता मैं तो क्या होता?

 

तेरी दुआओं में असर हो तो मस्जिद को हिला के दिखा

नहीं तो दो घूँट पी और मस्जिद को हिलता देख।

 

नादान हो जो कहते हो क्यों जीते हैं “ग़ालिब “

किस्मत मैं है मरने की तमन्ना किसी दिन और।

 

रहने दे मुझे इस अँधेरे में ग़ालिब,

कम्बख्त रौशनी में

अपनों के असली चेहरे नज़र आ जाते है।

 

गैर ले महफ़िल में बोसे जाम के

हम रहें यूँ तश्ना-ऐ-लब पैगाम के

खत लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो

हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के

इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया

वरना हम भी आदमी थे काम के।

 

हर एक बात पे कहते हो तुम की तू क्या है,

तुम्ही कहो ये अंदाज़-ए -गुफ़्तगू क्या है ।

 

आता है कौन-कौन तेरे गम को बाँटने ग़ालिब

तू अपनी मौत की अफवाह उड़ा के तो देख।

 

थी खबर गर्म के ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्ज़े ,

देखने हम भी गए थे पर तमाशा न हुआ।

 

 

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई,

दोनों को इक अदा में रज़ामंद कर गई।

 

हैरान हूँ तुझे मस्ज़िद में देखकर ग़ालिब

ऐसा क्या हुआ जो तुझे खुदा याद आ गया।

 

मत पूछ की क्या हाल है मेरा तेरे पीछे,

तू देख की क्या रंग है तेरा मेरे आगे।

 

इश्क़ मुझको नहीं वेहशत ही सही

मेरी वेहशत तेरी शोहरत ही सही

काटा कीजिए न तालुक हम से

कुछ नहीं है तो अदावत ही सही।

 

किसी की क्या मजाल थी जो कि हमें खरीद सकता

हम तो खुद ही बिक गये खरीददार देखकर।

 

फिर उसी बेवफा पे मरते हैं

फिर वही ज़िन्दगी हमारी है

बेखुदी बेसबब नहीं ‘ग़ालिब’

कुछ तो है जिस की पर्दादारी है।

 

तेरे हुस्न को पर्दे की ज़रुरत नहीं है ग़ालिब

कौन होश में रहता है तुझे देखने के बाद।

 

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई

दोनों को एक अदा में रजामंद कर गई

मारा ज़माने ने ‘ग़ालिब’ तुम को

वो वलवले कहाँ , वो जवानी किधर गई।

 

कुछ इस तरह से मैंने

जिंदगी को आसां कर लिया ग़ालिब,

किसी से माफ़ी मांग ली

तो किसी को माफ़ कर दिया।

Mirza Ghalib Shayari Poetry Quotes In English | Ghalib Shayari In English

Nazar lage na kahin uske dast-o-baju ko

ye log kyun mere jkhme jigar ko dekhte hai.

 

Tum Na Aaye To Kya Sahar Na Huyi

Haan Magar Chain Se Basar Na Huyi

Mera Nala Suna Zamane Ne

Ek Tum Ho Jise Khabar Na Huyi

 

Tere Zawahire Tarfe Kal Ko Kya Dekh

Hum Auze Tale Laal-O-Guhar Ko Dekhate Hai

 

Fikra-ae duniya me sir khapata hu

Main kaha aur ye bawal kaha.

 

Main udas basti ka akela baris

udas shakhisyat pehchan meri.

 

Aa Hi Jaata Woh Raah Par Ghalib

Kai Din Aur Bhi Jiye Hote

 

Gujre Hue Lamho Ko Mai Ek

Baar To Jee Lu, Kuch Khwab

Teri Yaad Dilane Ke LiYE Hai.

 

Hum na badlenge waqt ki raftaar ke sath,

Jab bhi milenge andaz purana hoga.

 

Ishq Se Tabiyat Ne Zeest Ka Mazaa Paya

Dard Ki Dawa Payi Dard Be Dawa Paya.

 

Main nadan tha jo wafa ko talash krta raha ghlaib,

Yeh naa socha ki

Ek din apni saans bhi bewafa ho jaegi.

 

Jara si chhed kya hua mere jeb me

sikkon se jyada to rishtedar gir gaye. Mirza Ghalib Quotes | Mirza Ghalib Ki Shayari

 

Zindagi se hum apni kuch

udhar nahi lete,Kafan bhi lete

hai to apni zindgi dekar.

 

Jaan Tum Par Nisaar Karta Hoon

Main Nahin Jaanta Dua Kya Hai.

 

Bikhra Wajood, Toote Khwaab,

Sulagti Tanhaiyan,Kitne Haseen

Tohfe De Jati Hai Yeh Mohabbat.

 

udas hun kisi ki bewafai par

wafakahib to kar gaye ho khush rho.

 

Ta Fir Na Intezaar Mein Neend

Aaye Umr Bhar,Aane Ka Ahed

Kar Gaye Aaye Jo Khwaab Mein.

 

Wo Raste jin pe koi silwate na pad sakti

un raston ka mod ke sirahane rakh liya.

 

Bus ki dushwar hai har kaam ka aasan hona,

Aadmi ko bhi mayassar nahi insaan hona.

 

Koi Virani Si Virani Hai

Dasht Ko Dekh Ke Ghar Yaad Aay

 

Yeh Hum Jo Hizr Mein Deewaar-O-Dar Ko dekhate Hain

Kabhi Saba Ko Kabhi Namaabar Ko Dekhate Hai.

 

Hua Jab Gham Se Yun Behish

To Gham Kya Sar Ke Katane Ka

Na Hota Gar Judaa Tan Se

To Jahanu Par Dhara Hota.

 

Unki ek nzar ko taraste rahenge

ye ansu har bar baraste rahenge

kabhi bite the kuch pal unke sath

bas yahi soch kar haste rahenge.

 

Ghalib Chhuti Sharab Par Ab Bhi Kabhi Kabhi

Peeta Hoon Roz-E-Abr Aur Shab-E-Mehtab Mein

 

Un ke dekhe se jo aa jati hai

muh par ronak wo samjhte hai

ki bimar ka haal achha hai.

 

Khairat me mili khushi mujhe acchi nahi lgti ghalib,

Main apne dukho me rhta hu nawabo ki tarah.

 

Jab laga tha teer tab itna dard naa hua ghalib,

Zakhm ka ehsaas tab hua

Jab kamaan dekhi apno ke hath me.

 

Itna dard na diya kar e zindagi

ishq kiya hai koi katl nahi.

 

Qasid Ke Aate Aate Khat Ik Aur Likh Rakhun

Main Jaanta Hoon Joh Woh Likhenge Jawab Mein.

 

Dard jab dil mein ho to dava keejie

Dil hee jab dard ho to kya keejie.

 

Woh Cheez Jiske Liye Hamko Ho Bahisht Azeez

Siwaye Bada-E-Gulfaam-E-Mushkabu Kya Hai

 

Ked me hai tere wahashi ko

wahi julf ki yaad han kuch ik

ranj gara bari-e-janjir bhi tha. Mirza Ghalib Shayari Poetry Quotes In English | Ghalib Shayari In English

 

Bajicha-e-aatfal hai duniya mire aage

hota hai shab-o-roj tamasha mire aage.

 

Yun hi udas hai dil bekarar thodi

hai mujhe kisi ka koi intzaar thodi ha.

 

Hatho Ki Lakiron Pe Mat Ja Ae Ghalib

Naseeb Unke Bhi Hote Hain Jinke Hath Nahi Hote.

 

Hum to fana ho gaye uski aankhe dekhkar ghalib,

Naa jane wo aaina kaise dekhte honge.

 

Nahi Karni Ab mohabbat kisi se

EK bar karke hi pachta liye hum

usi ne de diye humein zindagi ke Sare gam.

 

Udasi pakad hi nahi paate log

itna sambhal kar muskurate hai hum.

 

Ranj se khugar hua insa to mit

jata hai ranj mushkilein mujh

par padi itni ki Aasan ho gai.

 

Manzil milegi bhatak kar hi sahi gumrah

to wo hai jo ghar se nikale hi nahi.

 

Vaiz Teri Duwaon Mein Asar Ho To Masjid Ko Hilake Dekh

Nahi To Do Ghoont Pee Aur Masjid Hilata Dekh.

 

Tum wo bhi mahsus karliya karo na

jo hum tumse keh nahi pate hai.

 

Dard jab dik me ho to dawa kijiye,

Dil hi jab dard ho to kya kijiye.

 

Ab to aa jao sai bahut udas hai dil

sanson ki tarah zarurt hai ab didar tera.

 

Tum milo ya na milo nasib ki baat hai par

sukun bahut milta hai tumhe apna sochkar.

 

Koi Mere Dil Se Puchhe Tere Teer-E-Neem-Kash Ko

Yeh Khalish Kaha Se Hoti Jo Jigar Ke Paar Hota.

 

Nazar Lage Na Kahi Uske Dast-O-Baju Ko

Yeh Log Kyun Mere Zakhm-E-Jigar Ko Dekhate Ha

 

Haqikat Na Sahi Tum Khwab

Bankar Mila Karo,Bhatke Musafir Ko

Chaandani Raat Bankar Mila Karo.

 

Chandni Raato Ki Khamosh

Sitaron Ke Kasam,Dil Mein Ab

Tere Shiwa Koi Bhi Aabaad Nahin.

 

Tu mila hai to ye ehsaas hua hai mujhko

Ye meri umr mohabbat ke liye thodi hai.

 

Un ke dekhe se jo aa jaatee

hai munh par raunaq.Vo samajhate

hain ki beemaar ka haal achchha hai.

Mirza Ghalib Shayari Poetry Quotes In English | Ghalib Shayari In English

 

Muhabbat me unki aana ka

pass rakhte hai Hum jankar

aksar unhe naraj rkhte hai.

 

ishq par jor nahi hai ye wo Aatish

galib ki lagaye na lage aur bujhe.

 

Wo cheez jiske liye humko ho bahisht ajij

shiwaye bada-e-gulfam-e-mushkabu kya hai.

 

Rekhte Ke Tum Hi Ustaad Nahi Ho Ghalib

Kehte Hain Agale Zamaane Mein Koi Meer Bhi Tha

 

Hai ek tir jis me dono chinde pade hai

din gaye ki apna dil se jigar juda tha.

मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल | Mirza Ghalib Ghazal In Hindi
Ghalib Shayari Poetry Quotes – मेहरबां हो के बुला लो

मेहरबां हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वकत,

मैं गया वकत नहीं हूं कि फिर आ भी न सकूं,

जोफ़ में ताना-ए-अग़यार का शिकवा क्या है,

बात कुछ सर तो नहीं है कि उठा भी न सकूं,

ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वरना,

क्या कसम है तिरे मिलने की कि खा भी न सकूं।

 

मिर्ज़ा ग़ालिब की फेमस शायरी – घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां होता

घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां होता,

बहर गर बहर न होता तो बयाबां होता,

तंगी-ए-दिल का गिला क्या ये वो काफ़िर दिल है,

कि अगर तंग न होता तो परेशां होता,

वादे-यक उम्र-वराय बार तो देता बारे,

काश रिज़वां ही दरे-यार का दरबां होता।

 

मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल – कोई उम्मीद बर नहीं आती

कोई उम्मीद बर नहीं आती,

कोई सूरत नज़र नहीं आती,

मौत का एक दिन मुअय्यन है,

नींद कयों रात भर नहीं आती,

आगे आती थी हाले-दिल पे हंसी,

अब किसी बात पर नहीं आती,

जानता हूं सवाबे-ताअत-ओ-ज़ोहद,

पर तबीयत इधर नहीं आती,

है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूं,

वरना क्या बात कर नहीं आती,

कयों न चीखूं कि याद करते हैं,

मेरी आवाज़ गर नहीं आती,

दाग़े-दिल गर नज़र नहीं आता,

बू भी ऐ बूए चारागर नहीं आती,

हम वहां हैं जहां से हमको भी,

कुछ हमारी ख़बर नहीं आती,

मरते हैं आरजू में मरने की,

मौत आती है पर नहीं आती,

काबा किस मूंह से जाओगे ‘ग़ालिब’,

शरम तुमको मगर नहीं आती।

 

Mirza Ghalib Shayari Poetry – दिया है दिल अगर उस को

दिया है दिल अगर उस को ,

बशर है क्या कहिये

हुआ रक़ीब तो वो ,

नामाबर है , क्या कहिये

यह ज़िद की आज न आये

और आये बिन न रहे

काजा से शिकवा हमें किस क़दर है ,

क्या कहिये

ज़ाहे -करिश्मा के यूँ दे रखा है

हमको फरेब

की बिन कहे ही उन्हें सब खबर है ,

क्या कहिये

समझ के करते हैं

बाजार में वो पुर्सिश -ऐ -हाल

की यह कहे की सर -ऐ -रहगुज़र है ,

क्या कहिये

तुम्हें नहीं है सर-ऐ-रिश्ता-ऐ-वफ़ा

का ख्याल

हमारे हाथ में कुछ है,

मगर है क्या कहिये

कहा है किस ने की

ग़ालिब ” बुरा नहीं लेकिन

सिवाय इसके की

आशुफ़्तासार है क्या कहिये।

 

Mirza Ghalib Shayari – मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें

मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें,

चल निकलते जो में पिए होते,

क़हर हो या भला हो , जो कुछ हो,

काश के तुम मेरे लिए होते,

मेरी किस्मत में ग़म गर इतना था,

दिल भी या रब कई दिए होते,

आ ही जाता वो राह पर ‘ग़ालिब ,

कोई दिन और भी जिए होते,

दिले-नादां तुझे हुआ क्या है,

आख़िर इस दर्द की दवा क्या है,

हम हैं मुशताक और वो बेज़ार,

या इलाही ये माजरा क्या है,

मैं भी मूंह में ज़ुबान रखता हूं,

काश पूछो कि मुद्दआ क्या है,

जबकि तुज बिन नहीं कोई मौजूद,

फिर ये हंगामा-ए-ख़ुदा क्या है,

ये परी चेहरा लोग कैसे है,

ग़मज़ा-ओ-इशवा-यो अदा क्या है,

शिकने-ज़ुल्फ़-ए-अम्बरी क्या है,

निगह-ए-चशम-ए-सुरमा क्या है,

सबज़ा-ओ-गुल कहां से आये हैं,

अबर क्या चीज है हवा क्या है,

हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद,

जो नहीं जानते वफ़ा क्या है,

हां भला कर तेरा भला होगा,

और दरवेश की सदा क्या है,

जान तुम पर निसार करता हूं,

मैं नहीं जानता दुआ क्या है,

मैंने माना कि कुछ नहीं ‘ग़ालिब’,

मुफ़त हाथ आये तो बुरा क्या है।

 

Galib Ki Shayari In Hindi- गैर ले महफ़िल में बोसे जाम के

गैर ले महफ़िल में बोसे जाम के

हम रहें यूँ तश्ना-ऐ-लब पैगाम के

खत लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो

हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के

इश्क़ ने “ग़ालिब” निकम्मा कर दिया

वरना हम भी आदमी थे काम के।

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