धीरे धीरे मुक़द्दर सँवरने लगा
याद फ़रमा लिया जिस को सरकार ने
उस की क़िस्मत का तारा चमकने लगा
नारा हमने लगाया जो सरकार का
सुन के शैतान रस्ता बदलने लगा
खोटे सिक्के थे जितने वो चल न सके
आ’ला हज़रत का सिक्का खनकने लगा
नाम अहमद रज़ा का जो हम ने लिया
बज़्म से देवबंदी निकलने लगा
उल्फ़त-ए-शाह-ए-दीं जिस के दिल में बसी
गिरते गिरते वो यारो ! संभलने लगा
ये भी ग़ौसुलवरा का ही फ़ैज़ान है
ज़र्रा ज़र्रा यहाँ का चमकने लगा
नातख्वां:
रहबर रसूलपुरी