बे-तलब भीक यहाँ मिलती है आते जाते
बे-तलब भीक यहाँ मिलती है आते जाते
ये वो दर है कि जहाँ दिल नहीं तोड़े जाते
सू-ए-तयबा ये समझ कर है ज़माने जाते
ये वो रोज़ा है जहाँ दिल नहीं तोड़े जाते
ये है आक़ा की इनायत, वो करम करते हैं
वर्ना हम जैसे कहाँ दर पे बुलाए जाते
ये वो रोज़ा है जहाँ दिल नहीं तोड़े जाते
भूल जाते थे सहाबा ग़म-ओ-आलाम अपने
देख लेते थे जो सरकार को आते जाते
ये वो रोज़ा है जहाँ दिल नहीं तोड़े जाते
रुत्बे सरकार के क्या ख़ल्क़ से जाने जाते
सब पे असरार-ए-इलाही नहीं खोले जाते
ये वो रोज़ा है जहाँ दिल नहीं तोड़े जाते
नूर की हद में फ़क़त नूर ही जा सकता है
सिर्फ़ अगर होते बशर अर्श पे कैसे जाते
ये वो रोज़ा है जहाँ दिल नहीं तोड़े जाते
नूर की हद पे शह-ए-नूर ही जा सकता है
हम से जो होते बशर अर्श पे कैसे जाते
ये वो रोज़ा है जहाँ दिल नहीं तोड़े जाते
जिस्म के साथ उठाए गए जब के ईसा
नूर-ए-कामिल क्यूँ न शब-ए-असरा बदन से जाते
ये वो रोज़ा है जहाँ दिल नहीं तोड़े जाते
चश्म-ए-बातिन से मदीने के नज़ारे देखो
सिर्फ आँखों से ये मंज़र नहीं देखे जाते
ये वो रोज़ा है जहाँ दिल नहीं तोड़े जाते
हम कहाँ होते ! कहाँ होती ये महफ़िल, अल्ताफ !
ख़ाक-ए-करबल पे अगर घर न लुटाए जाते
ये वो रोज़ा है जहाँ दिल नहीं तोड़े जाते
शायर:
सय्यिद अल्ताफ़ शाह काज़मी
नात-ख़्वाँ:
असद रज़ा अत्तारी